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सम्यक् आचार
देवं गुनं विशुद्धं, अरहंतं सिद्ध आचार्य जेन । उवज्झाय साधु गुन मार्धं, पंच गुनं पंच परमिष्टी ॥ ३२६॥
अरहन्त, सिद्ध, विभूतिद्वय ये देव ज्ञान निधान हैं । आचार्य, उवज्झाय, साधु ये, गुरुराज तीन महान हैं | ये दीप्तियें गुणज्ञान की होतीं वृहद् आगार हैं ।
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कहते इन्हें श्री पंच परमेष्ठी, विमल अधिकार हैं ।
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अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच गुणी आत्मायें, जो विशाल ज्ञान की धारी होती हैं, पंच परमेष्टी कहलाती हैं। ये पांचों विभूतियें 'देव' की कोटि में आती हैं । अतः इनमें से प्रत्येक का आराधन परमात्मा की अर्चना के समान ही महत्वपूर्ण और पवित्र है ।
अरहंतं ह्रियंकारं, न्यानमयी त्रिभुवनस्य ।
नंत चतुष्टय महियं, ह्रीयंकारं न्यान अरहंतं ॥ ३२७॥
चौबीस तीर्थकर जिन्हें, तीनों भुवन का ज्ञान है ।
जिनमें अनंत चतुष्टयों का वास सूर्य समान है || देते सदा ही 'ह्रीं' शुचि पद में, प्रचंड प्रकाश हैं । अरहंत प्रभु करते हैं, इससे हीं पद में वास हैं ॥
तीनों के भुवन के ज्ञाता तथा अनन्त चतुष्टय के धारी चतुर्विंश तीर्थंकर, जो स्वयं तरकर, संसार को तारते हैं, ह्रीं पढ़ वास करते हैं। इससे ह्रीं पद का ध्यान करने से सम्पूर्ण चतुर्विंश का व साथ ही साथ अरहन्त प्रभु का भी स्तवन हो जाता है।