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सम्यक् आचार ...
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तपं अप्प सद्भावं, दानं पात्रस्य चिंतनं । षट् कर्म जिनं उक्तं, मार्धं ति सुद्ध दिस्टतं ॥३२२॥ शुद्धात्मिक-सद्भाव में तपना ही, तप आचार है । सत्पात्र-दल का चितवन ही, दान चार प्रकार है। इस भांति जो करते सश्रद्धा, नित्य प्रति षटकर्म हैं । कहते हैं तारण तरण, वे करते उपार्जन धर्म हैं।
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आत्मिक सद्भावों में तपना ही वास्तविक तप और दान के लिये सत्पात्र दल का चितवन करना ही वास्तविक शुद्ध दान है। आप्त के कहे हुए इन षट्भाँति के शुद्ध कर्मों का जो नित्यप्रति माधन करते हैं, संसार में वही वास्तविक धर्मोपार्जन करते हैं ।
देवं च जिन उक्तं च, ज्ञानं अप्प सद्भाव । नंत चतुष्टय जुत्तो, चौदस प्रान संजदो होई ॥३२३॥ शुद्धात्मिक आनंद में जो, पूर्ण हों तल्लीन हों । जिनके अनंत चतुष्टयों-सी, दिव्य निधि आधीन हों। जो इंद्रियों के नाथ हों, दश प्राण के आधार हो ।
इन लक्षणों से युक्त जो हों, देव वे स्वीकार हो । जो शुद्धात्म-रस में तल्लीन हों; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख, और अनन्त शक्ति मो जिनके पास चार अमूल्य शक्तियें विद्यमान हों: इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार अथवा दश प्राणों के जो स्वामी हों तथा पाँचों इन्द्रियों पर जिनका पूर्णाधिकार हो, वही आराधना के योग्य वास्तविक देव हैं।