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सम्यक् आचार
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ये षट् कर्म पालंते, मिथ्या अन्यान दिस्टते । ते नरा मिथ्यादिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥३१८॥ मिथ्यात्व मायाचार से जो, पूर्ण विधि परिपूर्ण हैं । सम्यक न, पर षटकर्म करने में, जो नितप्रति चूर्ण हैं । वे भेद-ज्ञान-विहीन मानव, मूह मिथ्यादृष्टि हैं । संसार में वे नित बसाते, दुःखपूरित सृष्टि हैं।
मिथ्यात्व और अज्ञानता से पूर्ण जो पुरुप, किसी भी तरह दैनिक पट्कमों को पूरा करते हैं, व महान मिथ्यादृष्टी होते हैं और सम्यक्त्व से रिन और मिथ्यात्व में दृढ़ होने के कारण वे हमेशा संसार के पात्र बना करते हैं।
ये पर कर्म जानते, अनेय विभ्रम क्रीयते । मिथ्यात गुरु पस्यंते, दुर्गति भाजन ते नरा ॥३१९॥
अगणित भ्रमों के-विभ्रमों के, जो विशाल निधान हैं । इस भांति के करते असत, पटकम जो अज्ञान हैं। मिथ्यात्त का पत्थर गले से. बांधते वे मूह हैं ।
इस भाँति दुर्गति-पंथ पर, होते वे नर आरूढ़ हैं ।। अनेकों विभ्रमों और भ्रान्तियों से पूर्ण जो पट भाति के अशुद्ध कर्मों को संपादन करने में लगे रहते हैं, वे मुर्ख महा अज्ञान होते हैं। मिथ्यात्व के भारी पत्थर को गले से बांधकर, ऐसे पुरुष संसारअटवी में भांति २ की दुर्गतियों के पात्र बना करते हैं।