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सम्यक् आचार
अनेक पाठ पठनंते, बंदना श्रुत भावना । मुद्ध तत्व न जानते, सामायिक मिथ्या मानते ॥३१४॥ चाहे अनेकों पाठ का, निशिदिन पठन. पाठन करो । चाहे अनेकों वंदनायें बांच, पूजाघर भरो ॥ पर यदि न तुमको ज्ञात क्या. शुद्धात्मा अभिराम है । तो यह तुम्हारी भक्ति, सामायिक सभी बेकाम है ।।
तीसरा निक कर्म है सामायिक ! अनेक पाठ पढ़ो-लोगों को पढ़ाओ; वंदना करो-स्तुति करोपूजा करोः भारती करो, कुछ करो, किन्तु जब तक तुम्हें शुद्धात्मा की अनुभूति प्राप्त नहीं होतो; तुम्हारा मन आत्म-रमण का रसास्वादन नहीं करता, तुम्हारा यह क्रियाकाण्ड एकदम बेकाम है । तुम्हारी मामायिक पूर्णतया निष्फल है, क्योंकि विना आत्मानुभूति के सारे कार्य अशुद्ध ही हुआ करते हैं ।
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मंजमं असुद्धं जेन, हिंमा जीव विरोध । मंजम सुद्ध न पस्यंते, ते मंजम मिथ्या मंजमं ॥३१५॥ बस जीव रक्षा ही नहीं, संयम निपट अनजान है । निज आत्म संयम ही कि, संयम पूर्ण सत्य महान है ॥ जो आत्म-संयम पाल कर, करते न पूर्णाचार हैं ।
वे पुरुष संयम नाम पर, रचते असत् संसार हैं। जो लोग यह समझते हैं कि प्राणीमात्र का वध नहीं करना, एक यही संयम है, दूसरा नहीं, वे लोग अज्ञान-अंधकार में है। उनका यह संयम अशुद्ध या अपूर्ण संयम है। अपनी आत्मा के परिणामों में विकृति उत्पन्न नहीं होने देना, यही आत्म संयम वास्तव में शुद्ध और सम्यक् संयम है। जो दैनिक षटकर्म का चतुर्थ अंग है । जो पुरुप संयम के नाम पर अन्यान्य कर्म करते हैं. वे संयम का बाह्याचरण ही करते हैं, अंतरंग नहीं, और इस तरह संयम के नाम पर वे एक अभिनय की ही मृष्टि करते हैं।