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सम्यक आचार
असुद्ध तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सह । सुद्ध तत्व न पस्यंते, मिथ्या माया तपं कृनं ॥३१६॥ चाहे अनेकों भाँति को, दारुण तपश्चर्या करो । उपसर्ग झेलो, कायक्लेशों से, हृदस्तल को भरो । पर यदि न तुमको ज्ञात क्या, तत्वार्थ सुख का सार है । तो यह तुम्हारी तपश्चर्या, एक मायाचार है।
कितनी ही भांति की दारुण से दामण तपश्चर्या करो; उपसर्गों पर उपसर्ग झेलो, किन्तु यदि तुम्हें शुद्ध तत्व का ध्यान नहीं है; यदि तुम्हारी इन क्रियाओं में सम्यक्त्व की पुट नहीं है, तो तुम्हारी यह नपश्चर्या केवल मायाचार के केवल बाह्याडम्बर के और कुछ नहीं है। इस तरह की तपश्चर्या षट्कर्म का तप नाम का पांचवाँ अशुद्ध अंग होता है।
दानं असुद्ध दानस्य, कुपात्रं दीयते सदा । व्रत भगं कृतं मूढा, दावं मंमार कारनं ॥३१७॥
जो भी कुपात्रों को दिया जाता. अरे नर दान है । वह दान कुत्सित दान है. यह दान अशुचि महान है ॥ उससे पतित बनता जहां पर, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।
करता सृजन आवागमन की, वह वहां ही सृष्टि है ॥ जो दान कुपात्रों को दिया जाता है, वह कभी भी शुद्ध नहीं होताः वह सर्वदा अशुद्ध ही हुआ करता है। ऐसा कुपात्रों को दिया हुआ दान जहां सम्यग्दृष्टि के व्रतों को खंड खंड कर देता है, वह वहीं
आवागमन का कारण भी होता है, जिसके कारण प्राणी को अनंतानंत काल तक संसार सागर में गोते ग्वाना पड़ता है। ऐसा दान षट्कर्म का अन्तिम अग अशुद्ध दान कहलाता है।