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सम्यक् आचार
ग्रंथं राग संजुक्तं, कषायं च मयं सदा । सुद्ध तत्व न जानते, ते कुगरुं गुरु मानते ॥३१२॥ धन धान्य आदि परिग्रहों के, जो विपुल आगार हैं । दुर्दम कषायों के अरे जो, तिमिरपूर्ण बिहार हैं । जो शुद्ध आत्मिक तत्व से, रे! पूर्णविधि अनजान हैं । ऐसे कुगुरु को मूढ़, सद्गुरु मान, देते मान हैं।
जो परिग्रहों की जंजीरों से जकड़े हुये हैं; कषायों के झुण्ड जिन पर मधुमक्खियों के समान भिनभिनाया करते हैं तथा शुद्ध तत्व क्या वस्तु है, इससे जो बिलकुल अनभिज्ञ हैं, ऐसे कुगुरुओं को, मृर्व अज्ञान लोग गुरु मान लेते हैं और उनकी भक्ति भाव से पूजा विनय करते हैं। यह दूसरा असत् षट्कर्म का अंग अशुद्ध गुरु उपासना है ।
मिथ्या माया प्रोक्तं च, असत्यं सत्य उच्यते । जिन द्रोही वचन लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥३१३॥
मिथ्यात्व-मायाचार का, देते कुगुरु उपदेश हैं । कहते असद्तम कथन को, वे कुगुरु सत्र सन्देश हैं। सर्वज्ञ वचनों को छपा, करते कि वे जिन-द्रोह है।
इस भाँति दुर्गति-हेतु होते. ये कुसाधु-गिरोह हैं । कुगुरु मिथ्यात्व और मायाचार से सना हुआ उपदेश जनता को दिया करते हैं; जो असत्य पदार्थ है, उनका सत्य पदार्थ केसमान वे वस्तुस्वरूप समझाया करते हैं; सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी प्रभु के कहे हुए वचनों का वे लोप किया करते हैं, अत: सारी दृष्टियों से कुगुरु, प्राणियों को दुर्गति प्रदान करने वाले ही ठहरते हैं।