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सम्यक् आचार
सुद्धं षट् कर्म जेन, भव्य जीव रतो सदा । असुद्धं षट् कर्म जेन, अभव्य जीव न संसयः ॥३०८॥ रे ! शुद्धतम षटकर्म में, रहता वही नर लीन है । जो मोक्षगामी भव्य है, अज्ञान से जो हीन है। जो अशुचितम पटकम में, करता सदा किल्लोल है । वह है अभव्य अमोक्षगामी, आप्त वचन अमोल है ॥
. जिन्हें मोक्ष जाने का सौभाग्य प्राप्त होना है, ऐसे अज्ञान अंधकार से विहीन पुरुप तो शुद्ध पट्कर्म को समझते हैं और उनमें लीन रहा करते हैं. किन्तु जिनके भाग्य में आवागमन का चक्र ही लिखा हुआ है: मोक्ष का सुख जिन्हें कभी भी प्राप्त नहीं होगा, ऐसे अन्य पुरुप अशुद्ध पट्कर्मों के संपादन में ही अपना समय व्यतीत किया करते हैं और अपने संसार को बढ़ाया करते हैं ।
अशुद्ध षट कर्म सुद्ध असुद्धं प्रोक्तं च, अमुद्धं अमास्वतं कृतं । मुद्धं मुक्ति मार्गम्य, अमुद्धं दुरगति भाजनं ॥३०९॥ जो हैं अशुचि षट्कर्म, वे विज्ञो ! महा अपवित्र हैं । वे अशुभ बंधन हेतु के, प्रत्यक्षदर्शी चित्र हैं। जो शुद्ध सम्यक् कर्म हैं, वे मुक्ति के सोपान हैं।
रे ! अशुभतम षट्कर्म दुर्गति हेतु, दुःखनिधान हैं । अशुद्ध पटकम जो कि अशुचि पटकम भी कहलाते हैं, महान अपवित्र होते हैं। ये शाश्वत नहीं अशाश्वत होते हैं; सनातन नहीं, कल्पित होते हैं—गड़े हुए होते हैं। शुद्ध षट्कर्म जहाँ मुक्ति के मार्ग होने हैं, वहां ही ये अशुद्ध पटकर्म दुर्गतियों के आधार हुआ करते हैं।