________________
- सम्यक् आचार
जलं सुद्धं मनः सुद्धं च अहिंसा दया निरूपनं । सुद्ध दिस्टी प्रमाणं च, अव्रत स्रावग उच्यते ॥ ३०६ ॥
जो सत्पुरुष करता निरन्तर, शुद्ध जल का पान है । मन - शुद्ध हो वह जीव बन जाता, अहिंसा - प्राण है || जो शुद्ध जल व्यवहार करता, वही समकितवान है । अव्रती सम्यग्दृष्टि की भी यही सत् पहिचान है ||
शुद्ध जल पीने से मन शुद्ध बन जाता है और शुद्ध मन ही अहिंसा और दया का निरूपण करने वाला हुआ करता। जो मनुष्य शुद्ध जल का अर्थान छने हुए और प्रासुक जल का व्यवहार करता है, वही नियम से शुद्ध दृष्टि और वही नियम से अती श्रावक कहा जाता है ।
अशुद्ध कर्मों को छोड़कर सम्यक् षट्कर्मों का नियम से पालन
अविरतं स्रावगं जेन, षट् कर्म प्रतिपालये । षट् कर्म द्विविधस्चैव, सुद्धं असुद्ध पस्यते ॥३०७॥
[१६५
होते हैं अत्रत - शुद्ध दृष्टी, जो गृहस्थ महामना । भव्यो सुनो, षट्कर्म की, करते सतत वे साधना ॥ षट्कर्म हैं दो भांति के कहते अनूप जिनेन्द्र हैं । हैं प्रथम शुद्ध, द्वितिय अपावन, मलिनता के केन्द्र हैं |
जो
त सम्यग्दृष्टि श्रावक होते हैं, वे नित्यप्रति दैनिक घट्कर्म का पालन करते हैं। ये षट्कर्म दो कोटि के होते हैं । प्रथम शुद्ध और दूसरे श्रशुद्ध ।
1