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१६५] . ........... .......... सम्यक् आचार
छने हुए जल का पान
पानी गालितं जेनापि, अहिंसा चित्त संकये । विलछितं सुद्ध भावेन, फासू जल निरोधनं ॥३०४॥ जिसको अहिंसा धर्म में, अनुराग है-श्रद्धान है। वह सत्पुरुष बस छानकर. करता सदा जलपान है ।। विलछन क्रिया का नित्य वह. करता विमल व्यवहार है । प्रासुक सलिल को ढांककर रखता सदा अविकार है ।।
जिसके मनमें यह भय रहता है कि मुझसे प्रमाद वश या जानबूझकर दीन प्राणियों की हिंसा न हो जाये, वह हमेशा पानी को छानकर ही पीता है तथा अन्य अन्य उपयोगों में लाना है। जिस जलाशय से पानी निकाला जाता है, पानी छान लेने के बाद, उसी जलाशय में वह उस छन्ने में आये हुए जीवों को पहुँचा देता है। यह विलछनक्रिया कहलाती है। विशेष सावधानी रखने के लिये वह लवंग आदि कसायले द्रव्यों से पानी को गर्म कर प्रासुक भी बना लेता है और कोई चीज उसमें गिर न पड़, इमलिये वह उसे हमेशा ढांककर ही रखता है।
जीव रव्या षट् कायस्य, संकये सुद्ध भावनं । स्रावगं सुध दिष्टी च, जलं फासू प्रवर्तते ॥३०५॥ जो श्राविकोचित गुणों का, परिपूर्ण शुद्ध निधान है । सम्यक्त्व से जिसका हृदय, प्रज्वलित सूर्य समान है। षटकाय जीवों की सुरक्षा, मात्र जिसका ध्येय है। प्रासुक सलिल को ही बनाता, वह पुरुष निज पेय है ।
पृथ्वी कायिक, जल कायिक, वायु कायिक, अग्निकायिक, वनस्पति कायिक, तथा त्रसकायिक इन छह काय के जीवधारियों के प्राण बचाने के लिये, सम्यग्दर्शन से विभूषित श्रावक अपने नित्यप्रति के उपयोग में निरन्तर प्रासुक जल का ही सेवन करता है।