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सम्यक् आचार
खादं स्वादं पीवं च, लेपं आहार क्रीयते । वासी स्वाद विचलंते, तिक्तं अनस्तमितं कृतं ॥३०॥ जोखाद्य,स्वाद औलेद्य, पेयों-सा किसी विधि का अशन । करते नहीं सूर्यास्त के पीछे, किसी विधि से ग्रहण ।। बासे या विकृत अन्न को भी, जो न खाते नेक हैं । वे रात्रि-भोजन-त्याग व्रत को. पालते सविवेक हैं ।
रात्रि भोजन त्याग से क्या तात्पर्य ? तात्पर्य यही कि मनुष्य को मूर्यास्त होने के दो घड़ी पहिले ही खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय, जो यह चार प्रकार का भोजन है, उसे ममान कर लेना चाहिये । जो मनुष्य इन चार भोजनों में से अवधि के बाद किसी भी भोजन को ग्रहण नहीं करता है, या बासा, गा जिसका स्वाद बिगड़ गया है, एस अन्न को नहीं खाता है, वही मनुष्य वास्तव में रात्रि भोजन का त्यागी कहा जा सकता है।
अनस्तमितं पालितं जेन, रागादि दोष वंचितं । सुद्ध तत्वं च भारं च, मंमिक दिष्टी च पस्यते ॥३०१॥ जो पुरुष करता रात्रि में, कोई न भोजन पान है । वह रागद्वेषों को नहीं, देता हृदय में स्थान है ।। शुद्धात्म के ही चिन्तवन में, जिस पुरुष का राग है । उसही विवेकी जीव का बस, रात्रि-भोजन त्याग है ।।
जो रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग कर देता है, उस पुरुष में फिर रागद्वेष आदिक दोष नहीं दिखाई देते हैं। एक मात्र शुद्धात्म तत्व की भावना करना ही उस पुरुष-श्रेष्ठ का कर्तव्य हो जाता है और वह उसी की अर्चना में तल्लीन रहता है । अतः रात्रि भोजन त्यागी का यह एक विशेष गुण होता है कि वह आत्मा का अनन्य पुजारी और शुद्ध सम्यक्त्व का धारी होता है ।