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सम्यक् आचार
मिथ्यातं परं दुष्यानी, समिक्तं परमं सुषं । मिथ्या माया त्यक्तंति सुद्धं समिक्त मार्धयं ॥२९६॥
मिथ्यात्व दुख का सिन्धु है, मिथ्यात्व दुख का मूल है । सम्यक्त्व सुख का केन्द्र है, सम्यक्त्व सुख का फूल है । इसलिये यह ही उचित है, मिथ्यात्व-मल का त्याग हो । सम्यक्त्व को दृढ़तम बनाने में, जगत का राग हो ।
आत्मा को छोड़कर पुद्गल पदार्थों को सारभूत समभकर उनकी पूजा करना, यही मिथ्यात्व सब से बड़ा दुख है। और आत्म तत्व को ही मोक्ष का साधन समझकर, उसी में तल्लीन रहना, यही सम्यक्त्व सबसे बड़ा सुख है अत: विवेकी पुरुपों को चाहिये कि वे दुःख के द्वार मिथ्यात्व का वर्जन कर दें और सुख के समुद्र सम्यक्त्व को अपना प्रगाढ़ मित्र-अपने जीवन का साथी बनावें ।
रात्रि-भोजन त्याग
अनस्तमितं वे घडियं च, सुद्ध धर्म प्रकासये । साधं सुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नरा ॥२९७॥ सूर्यास्त के दो घड़ी पहिले ही, जो नर विद्वान हैं । वे पूर्ण कर लेते हैं अपना, नित्य भोजन-पान हैं। करते हैं इससे वे जहां, तत्वार्थ में श्रद्धान हैं ।
निज आत्मा का वे वहाँ, करते प्रकाश महान हैं। जो मनुष्य विवेक और अविवेक को समझते हैं, वे सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहिले ही अपना सन्ध्या का दैनिक भोजन समाप्त कर लेते हैं। इस सूर्यास्त के पहिले भोजन करने से, जहां वे तत्वों में अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा प्रकट करते हैं, वहा ही शुद्धात्म धर्म का भी वे एक अनुपम प्रकाशन करते हैं और इस तरह धर्म के प्रचार में बहुमूल्य हाथ बंटाते हैं।