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सम्यक आचार
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सम्यग्षट्कर्म षट् कर्म सुद्ध उक्तं च, मुद्ध समय सुद्धं धुवं । जिन उक्तं षट् कर्मस्य, केवलि दिस्टि मंजुतं ॥३२०॥ सर्वज्ञ कहते, शुद्ध वे ही रे, सुनो षटकर्म हैं । जिनसे कि मानव लाभ करते, शुद्ध आत्मिक धर्म हैं । जिनके कि करने में न, कुत्सित भाव करते काम हैं ।
करते हुए जिनको झलकते, शुद्ध आतमराम हैं। शुद्ध षटकमों को क्या व्याख्या ? शुद्ध षट्कर्म वही जिनको सम्पादन करते हुए प्राणियों को ध्रुव और महापवित्र आत्मधर्म का लाभ हो । ये पट्कर्म जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये हुये हैं, अत: प्रामाणिक हैं और अविरल रूप से केवलियों की परम्परा से इसी तरह चले आते हैं।
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देव देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथ मुक्तं सदा । स्वाध्याय सुद्ध ध्यायंते, मंजमं मंजमं श्रुतं ॥३२१॥
देवाधिपति अरहन्त ही, बस मात्र हैं तारण तरण । निग्रंथ गुरु के ही सदा, आराध्य हैं पावन चरण ॥ शुद्धात्मा का मनन ही, स्वाध्याय सुख का सार है । शास्त्रानुकूलाचरण ही संयम, सुखद अविकार है।
जिन्होंने अष्टकों के समूह को समूल नष्ट कर दिया है, ऐसे देवों के देव सिद्ध प्रभु ही, या चार घातीय कमों के विध्वंसक अरहन्त परमात्मा ही आराधना के योग्य प्राप्त हैं; निग्रन्थ गुरु ही उपासना के योग्य गुरु हैं। अपने शुद्धात्मा का मनन ही स्वाध्याय है और शास्त्रानुकूल आचरण ही सम्यक् संयम है।