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सम्यक आचार
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मिथ्या मंग न कर्तव्यं, मिथ्या वाम न वामितं । दरोहि त्यति मिथ्यात्वं, देमो त्यागंति तिक्तयं ॥२९४॥ मिथ्यात्व का सहवास करना, रे कदापि न इष्ट है। मिथ्यात्व से अंतर सजाना, रे ! महान अनिष्ट है ।। मिथ्यात्व-वैरी का कदापि, न नाम लेना चाहिये ।
जिस देश में हों मूद, उसमें पग न देना चाहिये ।। मिथ्यात्व का या मिध्यादृष्टियों का कदापि भी संग नहीं करना चाहिये; मिथ्यात्व से रंगी हुई किसी भी वासना को कभी भी हृदय में स्थान नहीं देना चाहिये और जिस देश में या जिस क्षेत्र में ये मूर्ख लोग बसते हों, उस देश या उस क्षेत्र में जाने के लिये कभी पद भी नहीं बढ़ाना चाहिये।
मिथ्या दूरेहि वाचते, मिथ्या संग न दिस्टते । मिथ्या माया कुटुम्बस्य, तिक्ते विरचे सदा बुधै ॥२९५॥
मिथ्यात्व से विज्ञो! सदा ही, दूर रहना चाहिये । मिथ्यात्व की जलधार में, पड़कर न बहना चाहिये । मिथ्यात्व-माया-कीच से रे ! जो सना परिवार है । उसका कदापि न संग हो, केवल इसी में सार है।
मिथ्यात्व या मिथ्यात्वी को दूर ही से सोच समझ लेना चाहिये; उसी दिन के प्रभात को सर्वोत्तम समझना चाहिये, जिस दिन इन मूखों से भेंट न हो। मिथ्या और मायाचार से सना हुआ जो कुटुम्ब हो, उससे सर्वदा दूर ही रहा जाय, इसी में विद्वान गण सार समझते हैं।