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सम्यक् आचार
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सुद्ध तत्वं न जानते, न मंमिक्तं सुद्ध भावना । स्रावकं जत्र न उत्पादंते, अनस्तमितं न सुद्धये ॥३०२॥ तत्वार्थ क्या है, रे ! जिसे, इसका न कुछ भी भान है । शुद्धात्म-समकित भावना से, जो निपट अनजान है ॥ वह पुरुप श्रावक के गुणों से, सर्वथा ही हीन है । रे ! रात्रि-भोजन त्याग उसका. दोषयुक्त मलीन है।
शुद्ध नत्व का क्या म्वरूप है या शुद्ध सम्यक्त्व की भावना का किस प्रकार आराधन किया जाता है, जिसे यह कुछ भी नहीं मालूम, वह पुरुप न तो श्रावक या सद्गृहस्थ कहलाने योग्य है, न कोई यह कह सकता है कि वह सम्यक विधि से रात्रि भोजन का त्यागी व्रतो पुरुप ही है। तात्पर्य यह कि रात्रि भोजन त्यागी पुरुष को शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी होना ही चाहिये ।
जे नरा सुद्ध दिष्टी च. मिथ्या माया न दिस्टते । देवं गुरं सुतं शुद्धं, ममत्तं अनस्तमितं व्रतं ॥३०३॥ जो आत्म-निष्ठावान हैं, जो जीव समकित-दृष्टि हैं । मिथ्यात्व मायाचार की, जिनके न उर में सृष्टि हैं । सदेव, गुरु और शास्त्र में, जिनको अमिट श्रद्धान है ।
रे ! रात्रि भोजन त्याग उनका ही,सफल मतिमान है ।। जो मनुष्य शुद्ध सम्यग्दर्शन के आभूपण से विभूपित रहते हैं; मिथ्यात्व या मायाचार जिन्हें छूकर भी नहीं जाना और मच्चे देव, सच्चे गुरु व सच्चे शास्त्र में जिन्हें अमिट श्रद्धान रहता है, वही पुरुप अधिकारपूर्वक यह कह सकने में समर्थ हो सकते हैं कि हम रात्रि-भोजन-त्याग व्रत को धारण करने वाले हैं।