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सम्यक् आचार
उत्तम षिमा उत्पाद्यंते, उत्तम तत्व प्रकासकं । ममलं अप्प सद्भावं, उत्तम धर्मं च निस्वयं ॥ १७२ ॥
उत्तम क्षमा की जो मही पर, प्रत्येक कण से तत्व की,
सृजन करता सृष्टि है । करता सतत जो वृष्टि है | जो आत्मा का रूप है, निजरूप का जो मर्म है । वसुधातली पर भव्य वह ही, एक उत्तम धर्म है ॥
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संसार में, जो उत्तम क्षमा की सृष्टि का सृजन तथा परमोत्तम आत्म तत्व का प्रकाशन करता हो व जिसमें आत्मा का अस्तित्व पूर्ण रूप से निहित हो या जो आत्मा के सद्भावों का स्वयं साक्षात् रूप हो, वही परमोत्कृष्ट उत्तम धर्म है।
मिथ्या समय मिथ्यातं, रागादि मल वर्जितः ।
असत्यं अनृतं न दिस्टंते, ममलं धर्म सदा बुधैः ॥ १७३ ॥
मिथ्यात्र, मिथ्या शास्त्र से, जिसका पृथक संसार है । रागादि मल की जिस जगह, बहती न कुत्सित धार जिसमें न दिखता अनृत या कोई अचेतन कर्म है । विज्ञो ! वही संसार में, बस, एक उत्तम धर्म है ॥
जो मिथ्याज्ञान और मिथ्या शास्त्रों से सर्वथा दूर हो; रागादि मल के जिसमें चिन्ह भी न हो तथा असत्य और अनृत पदार्थों का जिसकी दृष्टि में कोई भी महत्व न हो वही संसार में सर्वोत्तम धर्म है ।