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सम्यक् आचार
पात्र दानं च प्रति पूर्न, प्राप्तं च परमं पदं । सुद्ध तत्वं च सार्धं च, न्यान मयं सार्धं धुर्व ॥२८०॥ यह पात्रदान महान शुभ, अतिशय सुखद सुख-सार है । होता है इससे प्राप्त, चिर सुख-शान्ति का आगार है । आगार ? वह जिसमें कि करता, आत्म-पद किल्लोल है । जिसमें रमण करता निरन्तर, ज्ञान ध्रुव अनमोल है ॥
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तीन तरह के उत्तम, मध्यम, व जघन्य पात्रों को दान देने का उत्कृष्ट फल उस अविचल सुख की प्राप्ति है, जो मुक्ति-सौख्य कहलाता है। जहाँ आवागमन के बंध कट जाते हैं और पुरुष पूर्ण स्वाधीन होकर अनन्त सुख के नन्दन विपिन में विहार करता है। यह सुख शुद्ध आत्मिक तत्व सहित होता है और उसमें अनन्तज्ञान किल्लोल किया करता है।
पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुद उच्यते । जत्र जत्र उत्पाद्यते, प्रमोदं तत्र जायते ॥२८॥ जो पात्रदल को देखकर, पाता प्रमोद अपार है। वह पुरुष बन जाता, त्रिलोकों के गले का हार है। जिस लोक को करती हैं जाकर, ये विभूति निहाल हैं ।
उस लोक के अंतर उन्हें, आ डालते वर-माल हैं॥ जो पुरुष सत्पात्रों को देखकर हर्षविभोर हो जाते हैं, त्रिभुवन तली भी उनको देखकर फूली नहीं समाती अर्थात उनके दर्शन से भी जगत्रय में आनन्द ही आनन्द बरसता है। वे दानी जीव जहाँ जहाँ जन्म लेते हैं, उनके दर्शनों से वहां वहां ही प्रमोद उत्पन्न होता है और उन्हें लोक के अंतरतम का अनन्त म्नेह प्राप्त होता है।