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सम्यक् आचार
पात्र दानं च भावेन, मिथ्या दिस्टी च सुद्धये । भावना सुद्ध समपूरनं, दानं फलं स्वर्ग गामिनं ॥२७॥ रे ! दान के सद्भाव को, होती है वह शुभ प्रतिक्रिया । इससे पतित से पतित, बन जाता है पावनतम हिया ।। जो दान के सद्भाव से परिपूर्ण, समकितवान हैं ।
वे नर निशंकित प्राप्त करते, स्वर्ग सौख्य महान हैं । सत्पात्रों को दान देने की भावना करने से मिध्यादृष्टि मनुष्यों के अन्तर से भी अंधकार का पर्दा हट जाता है और वे पतित से पावन बन जाते हैं। जो मनुष्य दान देने की भावना से परिपूर्ण रहते हैं, वे निश्चय ही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करते हैं ।
पात्र दान रतो जीवा, संसार दुष्य निपातते । कुपात्र दान रतो जीवा, नरय पतितं ते नरा ॥२७९॥ सत्पात्रदल को दान देने में, सदा जो लीन हैं । वे पुरुष बन जाते नियम से, भव दुःखों से हीन हैं । जो पुरुष देते रे ! कुपात्रों को. चतुर्विधि दान हैं । पतितोन्मुख हो भोगते वे, नर्क-दुःख महान हैं।
जो मनुष्य सत्पात्रों को दान देने में तल्लीन रहा करते हैं, वे संसार के दुखों को चूर्ण कर, उनसे रहित हो जाते हैं, पर जो पुरुष कुपात्रों को दान दिया करते हैं, वे निश्चय ही नर्क के कूप में गिरकर, भयंकर से भयंकर दुख उठाते हैं ।