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सम्यक् आचार
कुपात्र दान का फल
जस्य दानं च विनयं च, कुन्यान मूढ दिस्टतं । तस्य दान चिंतनं येन, संसारे दुष दारुनं ॥ २७६ ॥
दुष्पात्र दल को दान देना, रे ! महा अज्ञान है । दुष्पात्र दल की विनय करना, रे ! असत् श्रद्धान है || दुष्पात्र दल की पात्रता, दुष्पात्र दल का चितवन | करता है दारुण दुःख से, परिपूर्ण संसृति का सृजन ॥
कुपात्रों को दान देना, उनकी विनय करना, यह सब मूढदृष्टिता है। जो कोई ऐसे पुरुष को अपने दान का पात्र बनाने का चितवन करता है, वह संसार में अनन्तकाल तक दारुण दुख उठाता है।
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पात्रता और कुपात्रता
में भेद पात्र अपात्र विशेषत्वं, पन्नग गवं च उच्यते । तृण भुक्तं च दुग्धं च, दुग्ध भुक्तं विषं पुनः ॥ २७७॥
जिस भाँति होती सर्पिणी, और गौ अरे ! असमान हैं । होते हैं पात्र कुपात्र में, उस भाँति भेद महान हैं । गौ घास खाती, किन्तु देती नित्य मीठा दुग्ध हैं । सर्पिणि उगलती गरल, पीती यदपि दुग्ध विशुद्ध है ॥
पात्र और कुपात्र परस्पर उसी तरह भिन्न हुआ करते हैं, जिस तरह गौ और सर्पिणी । गाय तृण खाती है पर उसके बदले में मीठा दूध देती है, सर्पिणी दूध पीती है पर उसके बदले विष का वमन करती है, जो मनुष्यों के लिये प्राणघातक ही सिद्ध होता है ।