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सम्यक् आचार
कुपात्रं अभ्यागतं कृत्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । मुगति तत्र न दिस्टंते, दुर्गतिं च भवे भवे ॥२८४॥
जो पुरुष करते रे ! कुपात्रों का अतिथि-सत्कार हैं । वे खोलते अपने लिये, दुर्गति-भवन का द्वार हैं ॥ दुष्पात्र दल को दान देने में, कुगति ही कुगति है ।
मिलती नहीं, इस दान से रे ! भूलकर भी सुगति है ।। जो मनुष्य कुपात्रों को देखकर, उनका आतिथ्य करता है; उनका सत्कार कर उन्हें विनयपूर्वक दान देने का चिंतवन करता है, उसका जन्म जन्म में दुर्गतियों के रूप में महान आतिथ्य होता रहता है। मरने के बाद उसे अच्छी गति के फिर दर्शन नहीं होते। हाँ, दुर्गतियां उसकी दृष्टि के सम्मुख अवश्य बनी रहती हैं ।
कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, इन्द्री इत्यादि थावरं । तिरियं नरय प्रमोदं च, कुपात्र दान फलं सदा ॥२८५॥ जो नर कुपात्र विलोक कर, पाते महान प्रमोद हैं । वे जीव उस भव में अरे! बनते दरिद्र निगोद हैं। पाते हैं वे भी मोद, पर किस योनि में, कुछ ज्ञात है ?
उस योनि में जो, नर्क, तिर्यक् नाम से विख्यात है ॥ जो मनुष्य कुपात्रों को देखकर, हर्षविभोर हो जाते हैं, वे मरने के पश्चात एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय में जन्म लेते हैं। उनको भी किसी वस्तु को देखकर, प्रमोद की सृष्टि होती है, प्रमोद बरसता है। पर कहां ? किस लोक में ? तिथंच योनि में ! नर्क लोक में !! .