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सम्यक आचार
पात्र दानं च सुधं च, कर्म विपति सदा बुधै । जे नरा दान चिंतते, अविरत संमिक दिम्टतं ॥२७२॥ विज्ञो ! सुनो जो पुरुष देते, पात्रदान महान हैं । उनके सभी अघ टूट जाते, लौह-बंध समान हैं। जिसके हृदय में दान की, सद्भावनामय सृष्टि है। वह पुण्यवान सुजान ही रे ! अव्रत सम्यग्दृष्टि है।
पात्र दान से प्रात्मा के साथ बंधे हुए कर्म एकदम क्षय हो जाते हैं। जो मनुष्य इस पात्र दान के चिन्तवन में लीन रहते हैं, वास्तव में वे ही पुरुष अत्रत सम्यग्दृष्टी कहलाने के योग्य हुआ करते हैं।
पात्र दानं बट बीज, धरनी वृद्धति जेतवा । न्यान वृद्धति दानस्व, दालं चिंता सदा बुधै ॥२७३॥
यह पात्र दान सुनो सुमति. वट वीज का उपमान है। जो क्षोणि में जाकर निकलता, बन विटप असमान है। यह दान वृद्धिंगत बनाता, ज्ञान का आगार है ।
बहती है बुधजन के हृदय में, नित्यप्रति यह धार है। पात्रों को दिया हुआ दान ठीक वट बीज के सदृश हुआ करता है । जिस तरह वट का बीज देखनेमें तो छोटा होता है, किन्तु भूमिमें बोये जाने के पश्चात जिस तरह वह एक विशाल वट वृक्ष के रूपमें बाहर निकलता है, उसी तरह पात्र दान देखने में तो कुछ नहीं मालूम पड़ता, किन्तु दिये जाने के पश्चात् वह भी वट वृक्ष की नाईं ज्ञान का विशाल रूप धरकर,फलता-फूलता और पथिकों को अपनी शीतल छायामें आश्रय देता है। अत: जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं, वे हमेशा ही पात्रों को दान देने का चिन्तवन किया करते हैं।