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सम्यक आचार
नीच इतर अप तेजं च, वायु पृथ्वि वनस्पती । विकलत्रयस्य योनी च, अडावन लक्ष्य तिक्तयं ॥ २६८ ॥
सम्यक्त्व धारी नित्य' 'इतर' निगोद में जाते नहीं । अप, तेज, वायु, धरा, वनस्पति काय वे पाते नहीं ॥ विकलत्रयों की योनि में भी, वे न करते वास हैं । देतीं अठावन लाख गति, इसविधि न उनको त्रास हैं |
५८ लाख योनियाँ कौनसी ? नित्य निगोद, इतर निगोद, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, पृथ्वीकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वेन्द्रिय, तेंन्द्रिय, और चौन्द्रिय योनियां । ये योनियाँ अपने भेदों सहित ५८ लाख की संख्या में होती हैं। तीन तरह के पात्रों को दान देने वाला, इन योनियों को कदापि धारण नहीं करता ।
सुद्ध सक्ति संजुक्तं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ते नरा दुःष हीनस्य, पात्र दान रतो सदा ॥ २६९॥
सम्यक्त्व से जगमग अरे ! जिनके हृदय के वास हैं । जो नित्यप्रति प्रतिनिमिष करते, शुद्ध तत्व प्रकाश हैं || जो दान देने में सदा रहते भली विधि लीन हैं । वे जीव होजाते सकल, मानव - दुखों
से
हीन हैं ॥
जो शुद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं; शुद्धात्म तत्व का प्रकाश करने वाले हैं और निरन्तर जो दान देने में तल्लीन रहा करते हैं, ऐसे पुरुष श्रेष्ठ मानव योनि में जो दुःख उठाना पड़ते हैं, उनसे बिलकुल छूट जाते हैं; उन्हें मानवयोनि में फिर दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ता ।