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सम्यक् आचार
जघन्य पात्र अत्रन सम्यग्दृष्टि अव्रतं त्रितिय पात्रं च, देव मास्त्र गुरु मानते । मदहति मुद्ध मंमिक्तं, मार्थ न्यान मयं धुवं ॥२६४॥
जो देव शास्त्र व साधु में, रखता अमिट श्रद्धान है। जो आत्म को ही मानता, तारण तरण जल-यान है। होती सदा जिसके हृदय में, शुद्ध समकित-वृष्टि है । अन्तिम जघन्य कि पात्र वह ही, अव्रत सम्यग्दृष्टि है ।
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अवती सम्यग्दृष्टि दान का तृतीय पात्र गिना गया है। यह जघन्य पात्र कहलाता है। देव, शास्त्र व गुरु में इसकी अमिट श्रद्धा होती है; शुद्ध सम्यक्त्व का यह सम्यक् विधि से पालन करने वाला होता है तथा आत्मा को ही, यह संसार सागर से पार उतारने वाला एक मात्र जहाज समझता है।
सुद्ध दिस्टि च संपूरनं, मल मुक्तं सुद्ध भावना मति कमलासने कंठे, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥२६५॥ जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, सम्यक्त्व का जो कोष है । जिसमें नहीं अतिचार-दल, जिसमें न कोई दोष है ॥ कुज्ञान से जो हीन है, मतिज्ञान की जो सृष्टि है ।
अन्तिम जघन्य कि पात्र वह ही, अव्रत सम्यग्दृष्टि है ।। __ जो पूर्णतम शुद्ध दृष्टि है, अर्थात् सम्यक्त्व की भावना से जो श्रोतप्रोत है; सम्यक्त्व में लगने वाले दूषण जिसे छू भी नहीं गये हैं; कठस्थित कमल पर ॐ का ध्यान करने से जिसका मतिज्ञान अत्यंत ही प्रखर हो गया है और तीनों प्रकार के कुज्ञान से जो सर्वथा मुक्त है, वही अत्रत सम्यग्दृष्टि सद्गृहस्थ दान का जघन्य पात्र कहलाता है।