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सम्यक् आचार
मध्यम पात्र व्रती सम्यग्दृष्टि उत्कृष्टं श्रावकं जेन, मध्य पात्रं च उच्यते । मति स्रुत न्यान संपूरनं, अबधं भावना कृतं ॥२६०॥ जो पूर्ण सम्यग्दृष्टि हैं. व्रत, तप, क्रिया आगार हैं । मति और श्रुत की बह रहीं, जिनमें विमलतम धार हैं । जो अवधि पाने की सतत, करते हैं शुभ शुचि कामना ।
मध्यम सुपात्र वही हैं, सम्यग्दृष्टि जीव महामना । जो उत्कृष्ट सद्गृहस्थ या श्रावक होते हैं, वे दान के मध्यम पात्र कहे जाते हैं। ये श्रावक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से पूर्ण होते हैं तथा अवधिज्ञान पाने की भावना इनमें प्रतिपल जाग्रत रहा करती है।
अन्या वेदक समिक्तं, उपसमं सार्धं धुवं । पदवी द्वितीय आचार्य च, मध्य पात्र सदा बुधै ॥२६१॥ जो आज्ञा वेदक व उपशम, धौव्य समकितवान हैं । सम्यक्त्व से जिनके हृदय, दैदीप्य सूर्य समान हैं। जो पुरुष करते. द्वितिय पदवी का, भली विधि आचरण । वे सुजन मध्यम पात्र हैं, कहते हैं विभु तारण तरण ।।
जो आज्ञा, वेदक, उपशम व ध्रुव या क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करते हैं व द्वितीय पदवी के अनुसार आचरण करते हैं, वही सद्गृहस्थ जीव या व्रतधारी सम्यग्दृष्टि दान के मध्यम पात्र गिने जाते हैं।