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सम्यक् आचार
मिथ्या त्रिविधि न दिस्टंते, सत्यं त्रय निरोधनं । सुधं च सुद्ध द्रव्यार्थ अविरत संमिक दिस्टतं ॥ २६६ ॥
जिसमें त्रिविधमिध्यात्व की, बहतीं न कुत्सित धार हैं । देतीं न जिसको त्रास. शल्य - समूह अपरम्पार हैं || द्रव्यार्थिक नय और सुश्रुत ज्ञान का जो पुंज है ।
वह ही तृतीय सुपात्र, अवत - शुद्धदृष्टि-- निकुंज है ॥
जिसमें तीन प्रकार का मिध्यात्व अंशमात्र भी नहीं पाया जाता है; तीनों शल्यों के लिये जिसके हृदय के कपाट बिलकुल बन्द हैं: शुद्ध निश्चयनय को जो सम्यक् विधि समझता है और श्रुतज्ञान का जो भण्डार है, वही ती सम्यग्दृष्टि दान का जघन्य पात्र समझा गया है ।
पात्र दान का फल
त्रिविध पात्रं च दानं च, भावना चिंतते बुधै । सुद्ध दिस्टि रतो जीवा, अट्ठावन लक्ष्य तिक्तयं ॥ २६७॥
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जो पुरुष रहते, दान की सद्भावना में लीन हैं । होते हैं जो सम्यक्त्वधारी, सर्वदोष-विहीन हैं | षट्विंश लक्ष सुयोनि में ही, वे पुरुष करते गमन । जो हैं अठावन लाख गति, उनमें न वे करते भ्रमण ॥
जो पुरुष उत्तम, मध्यम या जघन्य इन पात्रों को दान देने की भावना किया करते हैं, वे शुद्ध दृष्टि जीव, केवल २६ लाख योनियों में ही जन्म धारण करते हैं, ५८ लाख निम्न योनियों में कभी भ्रमण नहीं करते ।