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सम्यक् आचार
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उवंकारं च बेदन्ते, हींकारं स्रुत उच्यते । अचष्यु दरमन जोयंते, मध्य पात्र मदा बुधै ॥२६२॥ जो ओम् का ही नित्यप्रति, करते अलौकिक ध्यान हैं । जो ही-श्रुत के ही सतत, गाते मनोहर गान हैं। करते हैं नित्य अचक्षु से जो, आन्म का दर्शन मनन ।
वे जीव मध्यम पात्र हैं, कहते हैं श्री अशरण शरण ।। श्रोम् ही जिनकी आराधना का मूलमन्त्र है; ह्रींकार रूपी श्रुत के ही मदा जो गान गाते हैं तथा आत्मा ही के सदा जो अचक्षु दर्शन करते हैं, वही सद्गृहस्थ व्रती सम्यग्दृष्टि श्रावक दान के मध्यम पात्र कहलाते हैं।
प्रतिमा एकादमं जेन, व्रत पंच अनोवतं । माधं सुद्ध तत्वार्थ, धर्म ध्यानं च ध्यायते ॥२६३॥
जो पुरुष ग्यारह स्थान का, करते सतत अभ्यास हैं । पंचाणुव्रत के जो अलौकिक, मव्य पूर्ण निवास है। जो नित्यप्रति धरते सहज ही, धर्म का शुचि ध्यान है ।
वे ही हैं मध्यम पात्र, जो सम्यक्त्व-रत्न निधान है। जो ग्यारह प्रतिमाओं ( स्थानों ) का उत्तरोत्तर अभ्यास करते हैं; पाँच अणुव्रतों को पालते हैं; शुद्धात्मा का ध्यान धरते हैं व धर्मध्यान में निरन्तर लीन रहते हैं, वही व्रती सम्यग्दृष्टि जीव दान के मध्यम पात्र कहे जाते हैं।