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..... सम्यक् आचार
संमिक्त जस्य न पस्य॑ते, असाई व्रत संजमं । ते नरा मिथ्या भावेन, जीवितोपि मृतं भवेत् ॥२१६॥ जिससे नहीं होती, विमल सम्यक्त्व की आराधना । होती नहीं जप तप व्रतों की, उस पुरुष से साधना ॥ करता सदा मिथ्यात्वपूरित, वह क्रिया अज्ञान है । जीता है पर जीते हुए. वह मूढ़ मृतक समान है ॥
जो पुरुप सम्यक्त्व को असाध्य कहकर, उसके पालन करने में अपने को असमर्थ बना लेता है, उससे व्रत, संयम, तप वगैरह कुछ भी पल सकेंगे, यह नितान्त भ्रमात्मक बात है। मिथ्या भावों को लेकर ही वह संसार में जीता रहता है, पर उसके जीने में और मरने में कोई अंतर नहीं रहता है अर्थात् वह मृतक के समान संसार में काल यापन करता रहता है।
उदयं संमिक्त हृदयं जस्य, त्रिलोकं मुदमं मदा । कुन्यानं राग तिक्तं च, मिथ्या माया विलीयते ॥२१७॥ जिसके हृदय में हो गया, सम्यक्त्व का सुप्रभात है । त्रैलोक्य में उसको न रहती, फिर कहीं भी रात है । मिथ्यात्व-मायाचार--तम, रहते न उसके पास हैं । कुज्ञान-राग उसे न देते, चोर सा फिर त्रास हैं ।
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जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो गया, उसके सम्बन्ध में यह समझ लेना चाहिये कि तीनों लोक, तीनों भुवन में उसके लिये प्रकाश ही प्रकाश हो गया; रात्रि का उसके लिये कहीं नाम भी न रहा । मिथ्यात्व और मायाचार उसके पास से सदा के लिये अदृश्य हो जाते हैं और कुज्ञान का अस्तित्व तो सदा के लिये उसके हृदय से मिट जाता है।