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१३२] ....................... - सम्यक् माचार
मल विमुक्त मूढादि, पंच विसति न दिस्टते । आसा अस्नेह लोभ च, गारव त्रि विमुक्तयं ।।२४०॥ त्रय मूढतादिक मलों से, जो पुरुष पूर्ण विहीन हैं । उनमें नहीं दिखते कभी, पचीस दोष मलीन हैं ।। आशा, सनेह व लोम, उनके सभिकट आते नहीं ।
जो तीन कटु गारव हैं, उनसे दुःख वे पाते नहीं। जो पुरुष तीन मूढ़ता आदिक दोषों से विमुक्त हैं, उनमें पच्चीस दोष कभी भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। आशा, स्नेह, लोभ व तीन गारव, उस मल से रहित सम्यग्दृष्टि के पास फटकने भी नहीं पाते हैं।
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दर्मनं सुद्ध द्रव्याथ, लोक मूढ न दिस्टते । जस्य लोकं च सार्धं च, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं ॥२४१॥ तत्वार्थ का श्रद्धान ही रे ! शुद्ध, शुचि सम्यक्त्व है । इसमें नहीं दिखता कहीं, संसार का मूढत्व है ।। जो जीव लोक विमूढ़ता को, रे ! झुकाता माथ है ।
सम्यक्त्व निधि रहती नहीं, फिर भूल उसके साथ है। शुद्धात्म तत्व में दृढ़ प्रतीति करना, इसी का नाम सम्यग्दर्शन है। जिस मनुष्य के पास सम्यग्दर्शन-निधि रहती है, उसके सन्निकट लोकमूढ़ता कभी पाने का साहस ही नहीं करती है। जो पुरुष लोकमूढ़ता के शिकार में फंस जाता है वह निश्चय ही इस मणि से हाथ धो बैठता है अर्थान लोक को प्रसन्न रखनेवाला, आत्मा का पुजारी किसी अवस्था में नहीं हो सकता।
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