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सम्यक् आचार
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देव मूढं च प्रोक्तंच, क्रीयते जेन मूढ ये । दुरबुद्धि उत्पादते जीवा, तावत् दिस्टि न सुद्धये ॥२४२॥ जो लौकिकेच्छा के लिये, जाते कुदेवों की शरण । वे जीव देव विमूढ़ता के, कूप में देते चरण । जब तक अरे ! यह मूदता, लाती कुबुद्धि कराल है।
तब तक नहीं जगती हृदय में शुद्धदृष्टि विशाल है। जो पुरुष राग द्वेष से सने हुए देवताओं के समीप जाकर, अपनी लौकिकेच्छा की पूर्ति के लिये प्रार्थना करता है, वह देवमूढ़ता की शरण लेता है, ऐसा कहा गया है। जब तक मनुष्य के हृदय में यह देवमूढ़ता रूपी इंधन सुलगा करता है, तब तक उसमें शुद्धदृष्टि का प्रादुर्भाव किसी भी प्रकार नहीं हो पाता है।
अदेवं देव उक्तं च, मूढ़ दिस्टि प्रकीर्तितं । अचेतं असास्वतं येन, तिक्तति सुद्ध दिस्टितं ॥२४३॥ जड़ वस्तु की आराधना क्या ? रे निरा मृढत्व है । अगणित मलों की भीत पर, जिसका बना अस्तित्व है। जिसके हृदय सम्यक्त्व रूपी, सलिलजा के कूल हैं।
अर्पित न करते वे अदेवों को, हृदय के फूल हैं । देवत्व से रहित अदेवों की आराधना करना मूढदृष्टिता कहलाती है। जो पुरुष शुद्धदृष्टि होते हैं या जिनका आत्मा में दृढ़ श्रद्धान रहता है वे कभी भूलकर भी, ऐसे अचेत, अशाश्वत और जड़ देव को अपना शीश नहीं झुकाते ।