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सम्यक् आचार
पार्षडिं वचन विस्वास, समय मिथ्या प्रकासये। जिनद्रोही दुरबुद्धि जेन, अस्थानं तस्य न जायते ॥२४६॥
पाखंडियों के वचन पर, करते जो नर विश्वास हैं । वे पुरुष करते रे ! कुशास्त्रों का, यथार्थ प्रकाश हैं । सर्वज्ञ से विद्रोह करना, मात्र जिनका ध्येय है । ऐसे कुगुरु के वास तक को, लांघना भी हेय है।
जो पुरुष पाखण्डियों के वचनों पर विश्वास किया करता है वह कुशास्त्रों को प्रकाश में लाने का अपराधी भी बनता है, क्योंकि जिन बातों का प्रभाव उसके हृदय पर पड़ता है उन बातों को वह जनता में भी अवश्य फैलाता है। वास्तविक बात तो यह है कि वीतराग प्रभु के मार्ग का जो उलंघन करता है, उसके निवास के दर्शन भी नहीं करना चाहिये।
पाखंडि कुमति अन्यानी, कुलिंगी जिन उक्त लोपनं । जिन लिंगी मिश्रेनं जस्य, जिनद्रोही न्यान लोपनं ॥२४७॥ जो हैं परिग्रह से सने, जिनके कुलिंगी वेश हैं । सर्वज्ञ के प्रतिकूल वे, देते अरे ! उपदेश हैं। यह ही नहीं, जिनवेप धर कुछ, साधुओं की टोलियां । ऐसी भी हैं. जो जिनवचन की खेलती हैं होलियां ॥
जो परिग्रहों के समूह से व्याप्त रहते हैं, तथा निम्रन्थ छोड़कर जिनकं दुसरं दूसरे वेप रहते हैं, एसे साधु, वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी प्रभु के बताये हुए मार्ग के प्रतिकूल लोगों को उपदेश दिया करते हैं । कुलिंगी साधु ही नहीं, प्रत्यक्ष में कुछ ऐसे जैन निम्रन्थ साधु भी हैं, जिन्होंकी टोलियां, जिन वचनों का उलंघन करती फिरती है और जनता को मनमान बनिर्माणित उपदेश देती रहती हैं।