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...................... सम्यक् आचार
पाषंडी उक्त मिथ्यात, वचन विस्वास न क्रीयते । तिक्तंते सुद्ध दिस्टी च, दरसनं मल विमुक्तये ॥२४॥ पाखण्डियों के वचन पर, करते जो नर श्रद्धान हैं । दिखता है उसके हृदस्तल में, बस निरा कुज्ञान है ॥ जो शुद्ध निर्मल कुंद सी, समकित सलिल की धार है । करती न फिर उस हृदय में, कलकल निनाद गुंजार है।
जो पुरुष पाखंडी साधुओं के वचनों पर विश्वास करता है; उनकी पूजा करता है, उसके हृदय में फिर कुज्ञान का ही वास हो जाता है । जग को तारने वाली समकित सुधा की जो धार होती है, वह फिर उन अज्ञानियों के हृदय में कलकल नाद नहीं करती।
मद अझं मान संबंध, कषायं दोष विमुक्तयं । दरसनं मल न दिस्टते, सुद्ध दिस्टि समाचरतु ॥२४९॥ जो अष्टमद के दोष से रे ! सर्वथा ही हीन हो । शंकादि मल की कालिमा से, जो न नेक मलीन हो ॥ जिसमें किसी भी भांति से. कोई कलंक किहेय हो ।
उस शुद्ध दर्शन का ही,प्रतिपालन जगत का ध्येय हो । जो अष्ट मद के दोपों से सर्वथा रहित हो; शंकादिक मलों को जिसमें छाया भी न पड़ती हो तथा दृमरे किसी भी प्रकार के दोषों का जिसमें समावेश न हो, एस सम्यक्त्व का पालन करने में ही इस जगन का सर्वप्रकार हिन सुरक्षित है ।