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सम्यक आचार
ज्ञान और आचरण का अभ्यास
न्यानं तत्वानि वेदते सुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्धात्मा तिर्थं सुद्धं न्यानं न्यान प्रयोजनं ॥ २५० ॥
जो सप्त तत्वों का रसास्वादन कराता हो सदा । जो आगमों से ढूंढकर देता हो नित नव सम्पदा || जो यह बताता हो कि रे, तू ही स्वयं जल-यान है । जो ज्ञान में तल्लीन है, भव्यो ! वही बस ज्ञान है ॥
सप्त तत्व क्या हैं; उनका स्वरूप क्या है, जो इसको प्रकाश में लाये; शास्त्रों में व आगमों में कहां कौनसी निधि छिपी हुई है, जो इसका दिग्दर्शन कराये; शुद्धात्मा ही तोर्थ है, मनुष्यों के हृदय पर जो इस बात की छाप लगाये तथा जो नित्यप्रति ज्ञान सम्बन्धी विषयों में ही रमण करे, वही ज्ञान या सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।
न्यानेन न्यानमालंबे, पंच दीप्ति प्रस्थितं । उत्पन्नं केवलं न्यानं, सुद्धं सुद्ध दिस्टितं ॥ २५९ ॥
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यदि ज्ञान है तो, आत्मिक सद्ज्ञान ही वह ज्ञान है । जो दीप्त हो उठता हृदय में स्वयं अग्नि समान है || इस ज्ञान से होता सृजन, उस ज्ञान का संसार है । जो पंच ज्ञानों में प्रमुख है, मोक्ष का जो द्वार है ॥
यदि हृदय में सम्यग्ज्ञान विद्यमान है, तो आत्मज्ञान को अपना प्रकाश फैलाते देर नहीं लगती र्थात् सम्यग्ज्ञान हो जाने पर श्रात्मज्ञान स्वयं उत्पन्न हो जाता है । श्रात्मज्ञान से, मनुष्य उस केवलज्ञान तक को प्राप्त कर लेता है, जो पंच ज्ञानों में प्रमुख और शाश्वत सुखों के घर मोक्ष का प्रधान कारण होता है।