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सम्यक् आचार .................. [१३.१
दर्मनं अर्ध ऊर्ध्वं च, मध्य लोकं च दिस्टते । षट् कमलं ति अर्थ च, जोइय संमिक दर्सनं ॥२३८॥ रे ! ऊर्ध्व, मध्य व अर्ध, ये जो तीन विस्तृत लोक हैं । सम्यक्त्व में दिखते सतत, उनके वृहत् आलोक हैं । सम्यक्त्व का होता हृदय में. जिस समय पूर्णत्व है ।
षट कमल मय दिखता है तब, जयरत्न-पूरित तत्व है । सम्यक्त्व के प्रभाव से, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक, ये तीनों स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । जिस समय मनुष्य के अंतस्तल में सम्यक्त्व पूर्ण रीति से रमण करता है, उस समय ऐसा मालूम पड़ता है, मानो, षट कमल और सर्वांग में सम्यक्त्व की धारा बह रही है।
दरमन अत्र उत्पादंते, तत्र मिथ्या न दिस्टते । कुन्यानं मलस्चैव, तिक्तंति योगी समाचरेत् ॥२३९॥ सम्यक्त्व-रवि का जिस जगह, होता प्रचण्ड प्रकाश है । मिथ्यात्व रूपी तिमिर करता, उस जगह न निवास है ।। जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि के नित, पालता आचार है ।
कुज्ञान तज करता है वह, सत्दृष्टि मय व्यवहार है। .. जहाँ सम्यग्दर्शन का पुण्य प्रादुर्भाव हो जाता है, वहाँ फिर मिथ्यात्व की छाया भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। जो पुरुष इस निर्मल सम्यग्दर्शन की आराधना करता है, वह कुज्ञान छोड़कर, सर्वत्र ज्ञानमय आचरण ही किया करता है ।