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सम्यक् आचार
संमिक्तं यस्य न पस्यंति, अंध एव मूढं त्रयं । कुन्यानं पटलं यस्य, कोसी उदय भास्करं ॥२१४॥ सम्यक्त्व रूपी सूर्य का, जिसको न होता भान है । वह मृढ़ता से ग्रस्त: नेत्र-विहीन है: अज्ञान है॥ जैसे कि बन्दी को न होता, सूर्य का आभास है ।
जो मूढ़ है दिखता न उसको, त्यों सुदृष्टि-प्रकाश है ॥ जो मनुष्य अपनी आत्मा पर प्रतीति नहीं लाते हैं, वे अंधों के ही समान हैं। तीन मूढ़ताओं ने उनकी आँखों पर अज्ञान की पट्टी चढ़ादी है। जिस प्रकार कारागृह की चहारदीवारी में घिरे हुए बंदी को सूर्य का प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी प्रकार मूखों को अपने अन्तर में छिपे हुए ज्ञान-धन पर प्रतीति नहीं होती।
मंमिक्तं जस्य स्रवते, श्रुत न्यान विचक्षनं । न्यानेन न्यान उत्पादंते, लोकालोकस्य पस्यते ॥२१५॥ जिसका हृदय सम्यक्त्व का, निस्सीम पारावार है । श्रुतज्ञान का जिसके हृदय में, दूर तक विस्तार है ॥ वह ज्ञान से इस भाँति, वृद्धिंगत बनाता ज्ञान है ।
दिखता है उसके ज्ञान में, त्रैलोक्य राई समान है ॥ जिसका हृदय सम्यक्त्व से ओतप्रोत है और श्रुतज्ञान का जो विशद भंडार है, उसके भाग्य कीउसके ज्ञान की फिर क्या सीमा ? आत्मानुभव जनित और शास्त्रों के स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञानों से अपने ज्ञान का वह इतना विस्तार कर लेता है कि उसे लोकालोक का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है।