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सम्यक आचार
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समिक्त बिना जीवा, जाने अंगाई श्रुत बहु भेयं । अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप वाटिका जीवो ॥२१०॥ यह जीव तीनों लोक के, श्रुतज्ञान का भंडार हो । व्रत तप क्रिया से युक्त हो, आचार का आगार हो । पर यदि न इसके हृदय में, समकित सलिल का ताल है । जप तप क्रिया व्रत सभी, इसका एक मायाजाल है।
मनुष्य तीनों लोक के श्रुतज्ञान का वेत्ता ही क्यों न हो; व्रत तप क्रियाओं के उम्पादन में उसका पूरा का पूरा समय ही क्यों न जाता हो; वाह्य आचरण और व्यवहार उसके गंगाजल स हा पवित्र क्यों न हों, पर यदि उसके हृदय में आत्मप्रतीति का या शुद्ध सम्यक्त्व का सरोवर नहीं है तो उसके ये व्रत तप, धर्माचरण नहीं, किन्तु संसार को ठगने के लिये प्रत्यक्ष माया के जाल हैं।
सुद्ध समिक्त उक्तं च, रत्नत्रयं च संजुतं । मुद्ध तत्वं च साद च, मंमिक्ति मुक्ति गामिनो ॥२११॥
जिस शुद्धतम सम्यक्त्व का, सर्वज्ञ करते हैं कथन । वह तीन अनुपम रत्न से, रहता है मंडित विज्ञजन || उसमें निहित रहता सदा, शुद्धात्म का श्रद्धान है ।
मिलता है शिवपुरगामियों को, यह अटूट निधान है ॥ जिस शुद्ध सम्यक्त्व का कथन श्री वीतराग देव करते हैं, हे भव्यो ! वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन रत्नों से निरन्तर ही अलंकृत रहता है। यह सम्यक्त्व आत्मा के श्रद्धान से भरपूर होता है और जिसको मोक्ष-प्राति का सौभाग्य होता है, उसे ही इस दुर्लभ रत्न को प्राप्त करने का अवसर मिलता है।