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सम्यक् आचार
जस्य संमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत संजुतं । संजम क्रिया अकार्ज च, मूल विना वृषं जया ॥२०८॥
जो उग्र तप तपता है पर, श्रद्धान से जो होन है । वह मूर्ख अपना तन बनाता, निष्प्रयोजन क्षीण है । जिस भांति होती वृक्ष की रे ! मूल ही आधार है । उस भाँति जप तप क्रिया में, दर्शन प्रथम है; सार है ॥
जो कठिन तपश्चरण तो करता है, किन्तु श्रद्धान जिसका बिलकुल शिथिल है, उसको समझ लेना चाहिये कि वह निष्प्रयोजन अपनी देह को सुखाकर कांटा बनाता है। त्रत हो, तप हो, क्रियाएं हों, कुछ भी हों, सम्यक्त्व का सबको आधारस्थल चाहिये ही । जिस प्रकार वृक्ष के लिये जड़ की नितान्त आवश्यकता है, उसी प्रकार सारे बाह्य कर्मों के लिये सम्यक्त्व या आत्मानुभूति की नितान्त आवश्यकता है ।
मिक्तं जस्य मूलस्य, साहा व्रत डाल नंत नंताई । अवरेवि गुणा होंति, संमिक्तं हृदयं यस्य ॥ २०९ ॥
जिस क्रिया रूपी वृक्ष की, सम्यक्त्व रूपी मूल है । वह वृद्धि पा देता अनन्तानन्त, मृदु फल-फूल है || जिनके हृदय पर लग चुकीं, सम्यक्त्व की दृढ़ छाप हैं । अगणित गुणों के गेह, बन जाते वे अपने आप h
जो क्रियायें सम्यक्त्व को आधार बनाकर सम्पन्न की जाती हैं, वे शीघ्र विलम्ब ही अपना फल दिखा देती हैं। जिसके हृदय पर सम्यक्त्व की दृढ़ छाप लग जाती है, वह अपने आप अनेक व्रतों का धारो बन जाता है; सद्गुण स्वयं चले आते हैं और उसके गले में वरमाल डाल देते हैं ।