________________
११४] .......................
सम्यक् आचार
मति न्यानं च उत्पादंते, कमलासने कंठ स्थिते । उर्वकारं सार्द्ध च, तिअर्थ साई धुवं ॥२०४॥ यह ओम् शाश्वत मुक्ति का, पर्यायवाची रूप है । यह ऊर्ध्व है, सद्भावमय है, ममल है. चिद्रूप है ।। ग्रीवा-कमल आसीन कर. करता जो इसका ध्यान है ।
प्रति निमिष उसका अग्रसर, होता अरे मतिज्ञान है ।। सद्भावों से पूरित श्रोम् ऊर्ध्व स्वभाव का धारी है। रत्नत्रय का वह शाश्वत निवास-स्थल है; मुक्ति का वह साक्षात् प्रतीक है। कठस्थित कमल में स्थिर कर, इस पुण्य ओम् का जो चिन्तवन करता है, वह पुरुष उत्तरोत्तर प्रखर मतिज्ञान का धारी बनता है।
कुन्यानं त्रि-विनिर्मुक्तं, छाया मिथ्या तिक्तयं । उवं हियं श्रियं सुद्धं, साई न्यान पंचमं ॥२०५॥ सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का, होता न किंचित् बोध है । यह तीन मिथ्याज्ञान का, करता सदैव निरोध है ।। करता है जो इस मोक्ष के, पथ की निरंतर साधना ।
वह ओम् ही व श्रीं की, करता सतत आराधना ॥ सम्यक्त्व तीनों मिथ्याज्ञान से शून्य होता है; मिथ्यात्र की छाया तक उसमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती है। जो इस मोक्ष के मूल सम्यक्त्व की सतत आराधना करता है वह ओम् , ह्रीं श्रीं तीनों का या ओम् ह्रीं श्रीं इस पुण्य मंत्र का स्तवन कर लेता है और केवलज्ञान उत्पन्न करने के मार्ग को सरल और सीधा बना लेता है।