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सम्यक् आचार
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समिक्तं सुद्ध धुवं साधु, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ति अर्थ सुद्ध संपूर्न, संमिक्तं सास्वतं पदं ॥२२२॥
सम्यक्त्व ही जगतीतली में, ग्राह्य है, सुखसार है । सम्यक्त्व ही शुद्धात्म का आलोक है, आधार है ॥ सम्यक्त्व तीनों रन्न का, पूर्णत्व है, एकत्व है ।
सम्यक्त्व ही शिवमार्ग है, सम्यक्त्व ही शिवतत्व है । इस जगतोनली में सम्यक्त्व ही एक शुद्ध और मार्थक पद है और यही शुद्धात्म तत्व को प्रकाश में लाने के लिये एक मुदृढ़ आलोक स्थल है। यह पद रत्नत्रय. से सुशोभित रहता है और उस मार्ग का प्रदर्शक होता है जो शाश्वत मुग्खों का आगार होता है और जिसको पाकर मनुष्य के जन्ममरण के बंधन कट जाते हैं।
यस्स हृदये समिक्तस्य, उदयं सास्वतं अस्थिरं । तस्य गुनस्य नाथस्य, असक्य गुण अन्तयं ॥२२३॥
सम्यक्त्व पद का लाभ कर, जो पुरुष आगे बढ़ गया । वह शाश्वत, ध्रुव, अमर उदयाचल शिखर पर चढ़ गया ॥ दिखते नहीं फिर कोई से भी, दोष उसके साथ हैं । आकर अनन्तानन्त गुण, उसको झुकाते माथ हैं ॥
जिस पुरुष ने सम्यक्त्व मार्ग का अवलम्बन कर लिया, उसने शाश्वत सुखों के उदयाचल को चूम लिया, प्रत्यक्ष यह ही समझना चाहिये । सम्यक्त्वधारी पुरुष, सम्यक्त्व का स्वामी बनकर ही नहीं रह जाता, अनेकों गुण इस सुयोग्य पुरुष के पास आते हैं और उसके गले में वरमाला डालकर उसे अपना नाथ बना लेते हैं।