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सम्यक आचार
संमिक्तं दिस्टते जेन, उदयं त्रिभुवन त्रयं । लोकालोक त्रिलोकं च, आल वाले मुखं जथा ॥२२४॥ सम्यक्त्व-रवि से खिल चुकीं, जिसके हृदस्तल की कली । उसके लिये समझो. प्रकाशित हो गई त्रिभुवनतली ॥ दिखता है उसके ज्ञान में, इस भांति से संसार है ।
जिस भांति निर्मल कुण्ड में. दिखता वदन उनहार है। जिसके हृदय में सम्यक्त्व का प्रखर प्रकाश हो जाता है, उसके लिये तीनों भुवन प्रकाशित हो जाते हैं। सम्यक्त्व के प्रकाश से उसके ज्ञान में इतनी निर्मलता आ जाती है कि तीनों लोक उसे पानी में दिखते हुए मुख की छाया की भांति स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगते हैं ।
अष्टमूल गुणों का पालन
पंच उदम्बर मूल गुलं च उत्पादंते, फलं पंच न दिस्टते । बड़ पीपल पिलषुनी च, पाकर उदंवरं स्तथा ॥२२५॥ सम्यक्त्व से जिन भव्य पुरुषों का, हृदस्तल है सना । वे अष्टगुण को पालने की. नित्य करते साधना ।। पीपल, उदम्बर, बड़, कटुम्बर, और पाकर ये सभी ।
होते अभक्ष्य न भूल, खाते हैं सुदृष्टि इन्हें कभी ॥ जो पुरुष सम्यक्त्व पालन करने का व्रत ले लेते हैं, वे अष्ट मूलगुणों का साधन करने में सतत ही सावधान रहा करते हैं। अष्टमूलगुणों में जिन साधनाओं का समावेश है उनमें = वस्तुयें हैं, जिन्हें अभक्ष्य कहा गया है और जिन्हें न खाने का उपदेश श्री वीतराग प्रभु देते हैं । इन आठ मूल गुणों में पांच तो फल (१) बड़ के फल (२) पीपल के फल (३) कटूम्बर (४) पाकर और (५) उदम्बर और तीन मद्य मांस और मधु हुआ करते हैं।