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सम्यक आचार
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फलानि पंच तिक्तंति, त्रसस्य रष्यनार्थयं । अतीचार उत्पादंते, तस्य दोष निरोधनं ॥२२६॥ जो दीन, हीन, दरिद्र हैं, अपराध से हैं जो परे । ऐसे त्रसों के त्राण को, मत पंच फल खाओ अरे ।। जिनके किये से हनन के, अतिचार होते हों सृजन । वे दोष भी सब सर्वथा ही, त्याज्य हैं, हे विज्ञजन ।।
जो पाँच फल नहीं खाने के योग्य बताये हैं, वे इसलिये ही बताये गये है कि उनमें हजागेत्रम जीवों का निवास होता है। उन त्रम जीवों की रक्षा के लिये ही हे भव्यो ! तुम उन फलों को मत खाओ। ऐसी दूसरी वे क्रियायें भी मत करो, जिनके करने से इन फलों को खाने का अथवा जीव घात का दोप लग जाये और इन फलों को न खाते हुए भी, तुम उनको खाने के दोष के तथा हिंमा पाप लगने के भागी बन जाओ।
अन्नं जथा फलं पुहपं, वीज संमूर्छनं जथा। तथाहि दोप तिक्तंते, अनेके उत्पाद्यते जथा ॥२२७॥
जिस अन्न में घुन लग गया, रे वह असेव्य, अभोग्य है । फल-फूल-बीज-समूह भी जो, विकृत हो, अपभोग्य है ।। इस भाँति जिनमें जन्म लेते, नित्य प्रति सम्मूर्छन । उन वस्तुओं को भूल मत, भक्षण करो हे विज्ञजन ॥
जिस प्रकार उपरोक्त पांच फल भक्षण करने के योग्य नहीं ठहराये गये हैं, उसी प्रकार और वस्तुयें भी जैसे ऐसा अन्न, जिसमें कीड़ों ने घुन लगा दिया है, सड़े हुए और समूचे फल, फूल बीज घास, पत्ते वाली शाक आदि ऐसी वस्तुएं भी, जिनमें सम्मूर्च्छन जीव रहा करते हैं, त्यागने के योग्य ही ठहरती हैं। तात्पर्य यह कि हमें जहाँ भी संदेह हो कि इस वस्तु में विकार आ गया है और इसमें सम्मूच्छन जंतु होंगे, वहाँ ही हमें उस वस्तु को अभक्ष्य समझ लेना चाहिये ।