________________
१२६]
सम्यक आचार
तीन मकार
मद्यं च मान संबंधं, ममत्व राग पूरितं । असुद्ध आलापं वाक्यं मद्य दोष संगीयते ॥ २२८ ॥
भव्यो ! सुनो मदिरा न केवल, मद्य का ही नाम है । मदिरा वही, मदिरा-गुणों के सदृश जिसका काम है ॥ मद, मान, ममता, मद्य, ये सब मद्य के ही रूप हैं । कटु वचन भी है मद्य, कहते यह गिरा चिद्र हैं |
जिन चीजों में मदिरा या मान सम्बन्धी दोप उत्पन्न हो जायें, वे समस्त वस्तुएं अथवा मान की भावनायें मद्यपान करने के अन्तर्गत ही आ जाती हैं, जैसे अशुद्ध कटु वचन बोलना । जब मनुष्य रा पी लेता है या मान का भूत उसके सिर पर सवार हो जाता है, तभी उसके मुंह से अनर्गल शब्द निकलते हैं, अतः अशुद्ध आलाप की मदिरापान का ही द्योतक है।
संधान संमूर्च्छन जेन, तिक्तं ति जे विचष्यनं । अनंत भाव दोषेन, न करोति युद्ध दिस्टितं ॥ २२९ ॥
जो वस्तुयें सम्मूर्छन, त्रस जन्तुओं की कोष हैं । 'संधान' के जिनमें, अनन्तानन्त लगते दोष हैं || जो शुद्धदृष्टी है वह करता इन सभी का त्याग है । जो पापमूलक वस्तुएं, उनसे न रखता राग है |
ऐसी वस्तुएं, जिनमें चलित रस सम्बन्धी दोप उत्पन्न हो जावें, संधान कहलाती हैं । मर्यादा के
बाहिर का अचार, मुरब्बा, दहीबड़े आदि वस्तुएं संधान में ही गर्भित होती हैं। चूंकि इन संधानों में अनंतानंत सम्मूर्च्छन जंतुओं का निवास होता है; इनके खाने में मदिरापान करने के समान ही दोष लगता है और आत्मा के साथ अनंतानुबंधी कषायों का बंध होता है, अतः सम्यग्दृष्टि या विवेकी पुरुष को इन संधानों को भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए ।