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सम्यक् आचार
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समिक्त सहित नरय यम्मि, संमिक्त हीनो न चक्रियं । मंमिक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीन मंमिक्त निगोदयं ॥२१८॥
सम्यक्त्व-निधि के सहित, नर्क-निवास भी उत्कृष्ट है । सम्यक्त्व-निधि से रहित चक्रिय पद नितान्त निकृष्ट है । सम्यक्त्व चिर सुख-सदन है, सम्यक्त्व चिर-सुख-गोद है ।
मिथ्यात्व दुख की सेज है. मिथ्यात्व नर्क निगोद है ॥ सम्यक्त्व के सहित नर्क में रहना भी उत्तम है, किन्तु सम्यक्त्व से रहित चक्रवर्ती पद नी नितान्त हेय है । सम्यक्त्व मुक्ति का मार्ग है और मिथ्यात्व भीषण दुखों से भरी हुई निगोद भूमि की संकीर्ण गली ।
संमिक्त संजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं सदा बुधै । हीन मंमिक्त कुलीनस्य, अकुली अपात्र उच्यते ॥२१९॥ सम्यक्त्व-निधि का पात्र, यदि चाण्डाल का भी लाल है । तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है, महिपाल है ।। सम्यक्त्व-निधि से रहित, यदि एक उच्च, श्रेष्ठ. कुलीन है । तो वह महान दरिद्र है, उससा न कोई हीन है।
सम्यक्त्व निधि का पात्र यदि शूद्र अस्पृश्य या चाण्डाल का पुत्र है तो वह भी उत्तम है और सम्यक्त्व से रहित यदि ब्राह्मण वैश्य या क्षत्रिय है तो वह भी नीच है। कहने का तात्पर्य यह कि सम्यक्त्व के पात्रों में जाति-पांति का या ऊंच नीच का भेदभाव नहीं गिना जाता। जिसमें सम्यक्त्व हो, वही सम्यग्दृष्टि, वही पूज्य और वही आराध्य होता है ।