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सम्यक् आचार
संमिक्तं जस्य न तिस्टंते, अनेय विभ्रम जे रता । मिथ्या मय मूढ दिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २१२ ॥
सम्यक्त्व जीवन मूरि से, जिसका हृदस्तल भिन्न है । वह जीव विभ्रम- ग्रस्त हो, रहता सदा ही खिन्न है | जो घोर तिमिराच्छन्न, मिथ्या मार्ग में आरूढ़ है । संसार - अटवी में भटकता, वह सदा ही मूढ़ है ॥
जिसका हृदय सम्यक्त्व से बहुत दूर रहता है अथात् जिसे अपनी आत्मा के ज्ञान गुणों पर विश्वास नहीं रहता, वह पुरुष हमेशा ही विभ्रम- ग्रस्त अवस्था में पाया जाता है । मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार में भटकते २ वह नेत्रहीन हो जाता है और निरंतर संसार रूपी कुंओं में गिरना ही उसका एकमात्र काम हो जाता है ।
संमिक्तं जेन उत्पादंते, सुद्ध धर्म रतो सदा । दोष तस्य न पस्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥ २९३ ॥
जिसके हृदय में हो चुका, सम्यक्त्व -- रवि का जागरण । जो प्रति निमप करता है, आतम--धर्म का ही आचरण || उसके हृदय में दोष को रहता न कोई ठौर है । आदित्य के पश्चात रहती,
सर्वरी
क्या और ?
जिसके हृदय में सम्यक्त्व रूपी सूर्य जाग जाता है; जो अपनी आत्म अर्चा में ही निरंतर तल्लीन रहता है, वह फिर किसी भी अवस्था में दोषों का पात्र नहीं रह पाता है । जब सूर्योदय हो जाता है तब क्या अंधकार भी कहीं देखने को मिला करता है ?