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... सम्यक् आचार ......................... [११५
देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य, मुद्ध तत्व सार्धं धुवं । मंमिक दिस्टि मुद्धं च, समिक्तं संमिक दिस्टितं ॥२०६॥ सत देव, गुरु और धर्म में, जिसको अटल श्रद्धान है । शुद्धात्म के ही चिन्तवन में, लीन जिसका ध्यान है॥ जिसकी समीचीनत्व से, परिपूर्ण निर्मल दृष्टि है ।
वह विज्ञजन ही भव्यजीवो, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ॥ जिसको सन्देव, सद्गुरु ओर सद्धर्म में अटल श्रद्धान हो; अपनी आत्मा के ही चिन्तवन में जो सदा लवलीन रहता हो तथा जिसकी दृष्टि में पूर्णरूपेण पूर्णता आ गई हो, वही पुरुष सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
संमिक्तं जस्य सुद्धं च, व्रत तप संजमं सदा। अनेय गुन तिटते, संमिक्तं सार्द्ध बुधैः ॥२०७॥
जिसका हृदय सम्यक्त्व का, शुचि शुद्ध पूर्ण निवास है । व्रत तप क्रिया संयम सभी का, उस हृदय में वास है। सम्यक्त्व की सद् प्राप्ति करना, एक अनुपम सिद्धि है ।
इस सिद्धि से होती गुणों में, नित्य नूतन वृद्धि है। जिसका हृदय सम्यक्त्व-गंगा से पवित्र हो जाता है, वह व्रत, तप आदि क्रियाओं से रहित होते हुए भी, अनेक व्रतों का स्वामी हो जाता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेना, एक दैवी शक्ति पर विजय पा लेना है, क्योंकि सम्यक्त्व ही एक ऐसी वस्तु है जिसको सींचने से व्रत, तप, क्रिया आदि का वृक्ष अपने आप हरा हो जाता है ।