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सम्यक् आचार
उत्तम जिन रूपी च, मध्यमं च मति श्रुतौ । जघन्यं तत्व सार्द्ध च, अविरत संमिक दिस्टितं ॥१९६॥ उत्कृष्ट लिंग विराग प्रभु के रूप, साधु महान हैं । मध्यम विमल मतिश्रुत मयी, श्रावक व्रती गुणवान हैं। अन्तिम प्रमेद स्वरूप वे, व्रतहीन सभ्यग्दृष्टि हैं । जिनके हृदय में शुद्ध दर्शन की, बसी नव सृष्टि हैं।
उत्तम श्रेणी के अन्तर्गत जितेन्द्रिय भगवान के साक्षात स्वरूप निमथ गुरु आते हैं, मध्यम श्रेणी में मति और श्रुतज्ञान के धारी, व्रती सद्गृहस्थ आते हैं और तृतिय श्रेणी में आते हैं अचल श्रद्धान के धारी अनती सद्गृहस्थ । इस प्रकार ये तीन श्रेणियां होती हैं।
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लिंगं त्रिविध उक्तं, चतुर्थ लिंग न उच्यते। जिन सासने च प्रोक्तं च, संमिक दिस्टि विसेसतं ॥१९७॥ सर्वज्ञ का शासन जो, सम्यग्दृष्टि है अविकार है। कहता है साधक श्रेणियों का, बस यही विस्तार है । इन तीन के अतिरिक्त, चौथा भेद और न शेष है। शुचि शुद्ध दर्शन का ही, पर सबमें महत्व विशेष है।
मोक्ष साधक श्रेणियों के उत्तम, मध्यम व जघन्य ये तीन ही भेद होते हैं। चतुर्थ भेद और कोई नहीं है। बीतराग प्रभु के शासन में सम्यग्दर्शन और उसके पालने वाले सम्यग्दृष्टि का ही विशेष महत्व है।