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सम्यक् आचार
अंग पूर्वं च जानते, पदस्तं सास्वतं पदं । अनृत अचेत त्यक्तं च, धर्म ध्यान पदं धुवं ॥१८२॥ जो भी चतुर्दश पूर्व, ग्यारह अंग का विज्ञान है । शाश्वत पदों से जानता, उनको पदस्थ ध्यान है । भव्यो ! अचेतन, अनृत, जड़ का ध्यान करना हेय है ।
ध्यावो पदस्थ-ध्यान, जीवन का इसी में श्रेय है । पदम्थ ध्यान में ११ अंग व १४ पूर्व का पदों के द्वारा क्रमश: चिन्तवन किया जाता है। हे प्राणियो ! तुम अमृत और अचेत पदार्थों की वन्दना कर व्यर्थ में क्यों कर्मबन्ध करते हो ? यह वन्दना हेय है। जीवन का श्रेय इसी में है कि तुम जड़ की आराधना छोड़कर इस धर्म ध्यान में जुट जाओ।
पिण्डस्थ ध्यान
पिंडस्तं न्यान पिंडस्य, स्वात्मचिंता सदा बुधैः। निरोधं असत्य भावस्य, उत्पाद्यं सास्वतं पदं ॥१८३॥ पिण्डस्थ ज्ञानस्वरूप. उस शुचि आत्मा का ध्यान है । जिस आत्मा का चिन्तवन, करता सदा विज्ञान है ॥ यह ध्यान मिथ्या भाव का, करता महान निरोध है । शाश्वत अमर पद का कराता, यह सहज ही बोध है ।।
पिण्डस्थ ध्यान, ज्ञान के कुज उस आत्मा का ध्यान है, जिसका कि ज्ञानवान प्राणी निरन्तर चिन्तवन किया करते हैं। यह पिण्डस्थ ध्यान असत्य भावों का निरोध करने वाला और शाश्वत पदार्थों का बोध व मृजन करने वाला होता है।