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सम्यक् आचार
चिद्रूपं सर्व चिहरूपं, धर्म ध्यानं व निस्चयं । मिथ्यात्व राग मुक्तं च, अमलं निर्मलं धुवं ॥१८६॥
संसार में प्रति आत्मा, अरहन्त प्रभु का रूप है । मिथ्यात्व, राग-विहीन है; सत् चित् ममल चिद्रूप है ॥ इस भांति करता आत्म का, जो भी मनन गुणवान है । वह सत्पुरुष धरता है शुचि, रूपस्थ रूपी ध्यान है।
रूपस्थ ध्यानी यह चिन्तवन करता है कि संसार में प्रत्येक आत्मा शुद्धात्मा है और प्रत्येक आत्मा विज्ञान की दृष्टि से अरहंत प्रभु का रूप है। वह आत्मा को सर्व प्रकार मिथ्या भावों से विरक्त, रागादि विभावों से मुक्त, निर्मल और शाश्वत अजर अमर रहने वाली मानता है।
रूपस्तं अर्हत् रूपेन, हींकारेन दिस्टते । उर्वकारस्य ऊर्ध्वस्य, ऊर्ध्वं च मुद्धं धुवं ॥१८७॥ अरहन्त शुद्ध स्वभावमय, सद्भाव सत्तावान हैं । रूपस्थ ध्यानी के यही, होते सुलक्ष्य महान हैं । अरहन्त से ही जानते वे, ही पद का रूप हैं ।
श्रुचि ही ही से जानते वे, ओंकार स्वरूप हैं । रूपस्य ध्यानी अरहन्त परमात्मा को शुद्ध स्वभावमय जानते हुए, उनही के ध्यान में तल्लीन रहते है। अरहन्त देव को आधारभूत मानते हुए ही, वे चतुर्विंश तीर्थंकर का चितवन कर लेते हैं और चतुर्विंश के आधार पर से ओम् की अनुभूति में मग्न हो जाते हैं।