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सम्यक् आचार ......
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देव देवाधि देवं च, गुरु ग्रंथं च मुक्तयं । धर्मस्य सुद्ध चैतन्यं, सार्द्ध समिक्तं धुवं ॥१९२॥ जो सिद्ध हैं, कृतकृत्य हैं, बस वही देव महान हैं । जो सब परिग्रह रहित है, गुरु वही ज्ञान-निधान हैं।
चैतन्यमय शुद्धात्मा ही, धर्म वस अविकार है।
इन तीन का श्रद्धान ही, दर्शन सुखों का सार है। देवों के देव अरहन्त या सिद्ध ही यथार्थ देव हैं; सर्व प्रारम्भ परिग्रहों से रहित निर्मथ गुरु ही यथार्थ गुरु हैं; चैतन्य लक्षण से मण्डित शुद्धात्मा की आराधना ही यथार्थ धर्म है और इन तीनों का सम्यक् श्रद्धान ही यथार्थ सम्यक् दर्शन है।
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समिक्तं जस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पश्यते । नतु मंमिक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥१९३॥ जिस सत्पुरुष के सन्निकट, सम्यक्त्व रूपी कोप है । उसमें नहीं दिखता है कोई, भूलकर भी दोष है। सम्यक्त्व की इस सम्पदा से, जो अभागा हीन है । संसार अटवी में सदा, करता भ्रमण वह दीन है ॥
जिस प्राणी के पास सम्यग्दर्शन रूपी निधि होती है, उसके पास किसी भी जाति के दोष नहीं फटकने पाते हैं, किन्तु जो सम्यक्त्व से हीन रहता है, वह दोषों से युक्त होकर सदा ही संसार में भ्रमण किया करता है।