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सम्यक आचार
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धर्म च अप्प सद्भावं, मिथ्या माया निकंदनं । सुद्ध तत्वं च आराध्यं, ह्रींकारं न्यान मयं धुवं ॥१७६॥ वसुधातली में, एक आतम धर्म ही सुखसार है । मिथ्यात्व, मायाचार से जो, शून्य है. अविकार है । करते हैं जो शुद्धात्मा की, यह महा आराधना । भाते हैं वे परमात्मा की, नर निसंशय भावना ।।
संसार में सर्वोत्कृष्ट धर्म शुद्ध प्रात्म धर्म ही है। यह धर्म मिथ्यात्व और मायाचार का समूल नाश करने वाला होता है। चतुर्विंश तीर्थकर या परमोत्कृष्ट पद में रहने वाले परमात्मा की जो अनुभूति होती है, वह इस शुद्धात्म धर्म की आराधना से प्राप्त हो जाती है।
धर्म ध्यान के चार भेद पदस्तं पिंडस्तं जेन, रूपस्तं विक्त रूपयं । चतु ध्यानं च आराध्यं, सुद्ध मम्मिक दर्सनं ॥१७७॥ भव्यो ! जो धर्मध्यान है. वह चार भेद प्रमाण है । पहिला प्रकार पदस्थ है. पिण्डस्थ दुजा ध्यान है । रूपस्थ ध्यान तृतीय, चौथा ध्यान रूपातीत है । यह ध्यान अंतिम ही कि बस, शुद्धात्म रूपी भीत है।
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धर्म ध्यान के ४ भेद हैं (१) पदस्थ ध्यान (२) पिण्डस्थ ध्यान (३) रूपस्थ ध्यान (४) म्पातीत ध्यान । जो चौथा रूपातीत ध्यान होता है, वही सर्वोत्कृष्ट आराधने के योग्य ध्यान होता है और उसी में शुद्धात्मा का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप झलकता है।