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.......... सम्यक् आचार
धर्म उत्तम धर्म च, मिथ्या रागादि खंडितं । चेतनाचेतनं द्रव्यं, सुद्ध तत्व प्रकासकं ॥१७४॥ संसार में सब धर्म में, उत्तम वही एक धर्म है । मिथ्यात्व खंडन कर दिखाता, सत्य का जो मर्म है ॥ चेतन, अचेतन द्रव्य का, जिसको भलीविधि ज्ञान है । जो शुद्ध निर्मल तत्व का ही, सतत करता गान है ॥
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जो मिथ्याज्ञान व आत्मा के विभाव रूप रागादिक परिणामों का सर्वथा खण्डन कर, शुद्धात्म नत्व का प्रकाश करता हो; चेतन और अचेतन पदार्थों के स्वरूप का जिसे स्पष्ट ज्ञान हो, संसार में सब धमों में बस वही एक उत्तम धर्म है।
धर्म अर्थ तिअर्थ च, ति अर्थ विंद संजुतं । षट् कमल त्रि उर्वकारं, धर्म ध्यानं च जोयतं ॥१७५॥ रे ! धर्म क्या ? शुद्धात्मा का, एक निर्मल रूप है । जगमग किया करता है, रत्नत्रय से यह वह स्तूप है ॥
ओंकार कर षट् कमल मय, करता जो उसका ध्यान है । वह पारखी है, शुद्ध आतम की उसे पहिचान है ।
धर्म क्या है ? सब पदार्थों में श्रेष्ठ प्रात्म पदार्थ का सर्वोत्कृष्ट रूप ! वह स्तूप जो अहर्निश तीन रत्नों से प्रदीप्त रहा करता है। ओंकार को एक मलयम मलमय कर, जो ध्यान किया जाता है. उस ध्यान में इस धर्म की ही अनुभूति होती है।