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.................. सम्यक आचार
धर्म च्यानं च आराध्य, उर्वकारं च अस्थितं । ह्रींकार श्रींकारं च, त्रि-उर्वकारं च संस्थितं ॥१७॥ यह आत्मिक सद्धर्म ही रे! एक धर्म--ध्यान है । जिसमें सुसज्जित है अरे ! विज्ञान ओम् समान है । वह ओम् जिसका मोक्षलक्ष्मी से अभिन्न स्वरूप है ।
तारण तरण तीर्थङ्करों का, जो निधान अनूप है ।। यह श्रात्मधर्म ही वास्तव में आराधने योग्य वह धर्मध्यान है, जो ओंकार का पुण्य निवासस्थान है मुक्ति लक्ष्मी का प्रवेश द्वार है और तारणतरण चतुर्विंश तीर्थकरों का परम पवित्र तीर्थ स्थान है।
धर्म ध्यान त्रिलोकं च, लोकालोकं च सास्वतं । कुन्यान त्रिविनिर्मुक्तं, मिथ्या माया न दिस्टते ॥१७१॥ जो आत्मिक सद्धर्म का, गाते मनोहर गान हैं । सालोक तीनों लोक का. धरते पुरुप वे ध्यान है । यह आत्मिक सद्धमं, मिथ्या ज्ञान--तम से हीन है ।
मायात्व का इसमें न दिखता, बिम्ब अशुचि मलीन है ।। धर्म ध्यान की आराधना में सालोक तीनों लोकों का स्वरूप चितवन किया जाता है। यह आत्म चिन्तवन रूपी धर्म ध्यान तीनों कुज्ञान से रहित रहता है और वहां पर मिथ्यात्व या मायाचार नाम मात्र को भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।